आज चली है जो
घर से निकल के
पहाड़ों को चुनौती देती हुई
पेड़ों को कुचलती हुई
आँखों में धूल झोंकती हुई
ऐसी आंधी कभी देखी नहीं पहले
खुद पर इतना ऐतबार है
और साथ ही गुरूर भी
सोचती है कि किसी तरह बस रौंध दूँ
उनको जो रास्ते में आते हैं
और उनको भी जो कहीं दूर खड़े हैं
शायद उन्हें भी जो मुझसे इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते
लेकिन एक मुसाफ़िर है
जिसे न डर है न शिकवा
जो कभी भी रोक सकती है
इस कहर को
हाँ वो बारिश ही है
जो उसका नाम मिटा सकती है
कहने को तो सिर्फ बूँदें हैं
पर पानी भी तेज़ाब बन सकता है
सैलाब की तरह बरसती है
जिससे आंधी का वजूद ही न रहे
लेकिन यह बूंदें अंजान हैं कि एक आंधी का विनाश होते ही दूसरी चल पड़ेगी, एक नयी उम्मीद लेके
बारिश का सामना करने
उसकी बनायी दीवार को लाँघने ।
- दिशा
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